कुछ बात जीवन में याद आती हैं
- उस दौर में मास्टर अगर बच्चे को मारता था।
तो वह घर आ कर अपने बाप को नहीं बताता था।
, और अगर बताता तो एक थप्पड़ बाप भी रसीद कर देता था यह वो दौर था जब एकेडमी का कोई तसव्वुर नही था।
ट्यूशन पढ़ने वाले बच्चे निकम्मे समझे जाते थे ।
बड़े भाइयों के कपड़े छोटों के काम आते थे । लड़ाई होने पर कोई हथियार नही निकलता था , यही कहना काफी होता था " मैं तुम्हारे अब्बू से शिकायत कर दूंगा " किसी घर में मेहमान आ जाता था तो पड़ोसी उस घर को देखते थे और फरमाइश करते थे इन्हें हमारे घर भी ले कर आएं ।मेहमान के लिए नए चादरें तकिये निकाले जाते , ग़ुस्ल खाने में नई तौलिया, साबुन रखा जाता।
जिस दिन मेहमान वापस जाता पूरे घर की आंखों में उदासी के आंसू होते ।मेहमान जाते हुए किसी छोटे बच्चे के हाथ में 10 रु का नोट पकड़ाने की कोशिश करता तो पूरा घर विरोध करते हुए वापस करने में लग जाता ,मगर मेहमान फिर भी दे कर ही जाता ।
शादी ग़मी में पूरा मोहल्ला शरीक होता था।
शादी के मेहमान मोहल्ले के दूसरे घरों में ठहराए जाते।
फिर नए जोड़े की सब लोग बारी बारी दावत करते।
अपना अक़ीदा अपना मसलक कोई किसी पर नही थोपता था ।
सब के दुख एक जैसे थे सब ग़रीब थे सब खुश थे ।
किसी किसी के घर में ब्लैक एंड व्हाइट टीवी होता था।
, सब बच्चे वहीं चित्रहार और फिल्में देखते थे ।
दुकानदार को खोटा सिक्का चला देना ही सबसे बड़ा फ्रॉड था।
काश वो दिन फिर आएं।

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